एक शिक्षक जो सेवानिवृत्ति के बाद पूरे शहर का शिक्षक बन गया

एक शिक्षक जो सेवानिवृत्ति के बाद पूरे शहर का शिक्षक बन गया
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संतोष कुमार द्विवेदी
श्रीशचंद भट्ट नहीं रहे । 26 की सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली और फिर कभी वापस न आने के लिए, पूरी शांति के साथ, अनंत की यात्रा पर चले गए । 89 वर्षों का सुदीर्घ, सक्रिय और रचनात्मक जीवन जिया उन्होंने । उनका जाना ज्ञान की अखंड ज्योति का बुझ जाना है । शहर के बौद्धिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विमर्श और आयोजनों की सर्वाधिक सम्मानित आसंदी का हमेशा के लिए रिक्त हो जाना है ।
श्रीशचंद भट्ट आजीवन शिक्षक रहे । पहले विभिन्न विद्यालयों में उन्होंने शिक्षिकीय दायित्व निभाया और सेवानिवृत्ति के बाद पूरे शहर के शिक्षक बन गए । शहर की तीन पीढ़ियों को उन्होंने पढ़ाया । 1954 में शासकीय शिक्षक पद पर भर्ती हुए और 1970 में लेक्चरर बने । प्रिंसिपल पद से सेवानिवृत्त हुए किंतु उनकी दक्षता पर भरोसा जताते हुए राज्य शासन द्वारा सेवा विस्तार देकर उन्हें राजीव गांधी शिक्षा मिशन में जिला परियोजना समन्वयक पद पर नियुक्त किया गया, जिसमें उन्होंने तकरीबन 2 साल अपनी विशेषज्ञ सेवाएं दी । सबके साथ एक जैसा संवाद, खुलापन, मित्रता और अपनत्व उनकी विशेषता थी । वे हर उम्र के बीच समान रूप से लोकप्रिय थे । यही वजह है कि उनके जाने से ऐसा लगा जैसे सिर्फ भट्ट परिवार से नहीं शहर के हर आदमी के भीतर से थोड़ा-थोड़ा ऐसा कुछ चला गया, जो न सिर्फ निहायत निजी, भावुक और बहुमूल्य था बल्कि इनके, उनके, सबके लिए जरूरी और प्रिय था ।
इतिहास के पन्ने खंगालने पर हम पाते हैं कि उमरिया में पदस्थ तत्कालीन वन मंडलाधिकारी श्रीशचंद जोशी के बुलावे पर 1920- 21 में उत्तरांचल के अल्मोड़ा से पहले एक पंत परिवार उमरिया आया और उनके बुलावे पर 1924- 25 में पिथौरागढ़ के खेतीगांव से एक कुमाऊनी भट्ट परिवार पहाड़ी सरलता, सुरुचि और बौद्धिक, नैतिक संपन्नता लेकर उमरिया आया और यहीं का होकर रह गया । इसी परिवार में 1935 में श्रीशचंद भट्ट का जन्म हुआ । उनकी प्रारंभिक शिक्षा - दीक्षा उमरिया में ही हुई ।
श्रीशचंद भट्ट की खूबी यह थी कि उनके व्यक्तित्व से एक साथ दो संस्कृतियों का भान होता था । उनकी काया से पहाड़ी सरलता, कर्मठता और पारदर्शिता प्रदर्शित होती थी तो बोलचाल और व्यवहार से ठेठ स्थानीयता । बघेलखंड की स्थानीयता के साथ घुल-मिल कर वे न सिर्फ एक रूप हो गए थे बल्कि उससे भी आगे बढ़कर उसके प्रामाणिक प्रवक्ता बन गए थे ।
राजशाही के दिनों में प्रगतिशील सोच के राजा अपने राज्य में, दूसरे राज्यों से विद्वानों, गुणियों और कलावंतों को प्रयात्नपूर्वक लाकर इसलिए बसाते थे कि उनके राज्य में ज्ञान, विज्ञान, कला, संस्कृति, साहित्य और शिल्प के क्षेत्र में सम्यक विकास हो । उद्योग, व्यापार और आजीविका के लिए होने वाले सहज पलायनों से भी प्रतिभाओं का आदान-प्रदान होता रहा है । आजादी के पहले से ही उमरिया में आरंभ हो चुके कोयला उद्योग में उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल और उत्तरांचल आदि कई राज्यों से ऐसे परिवार आए जिन्होंने इस आदिवासी बाहुल्य इलाके को अपनी प्रतिभा से एक नई पहचान दी । उन महद्विभूतियों डॉ. विनय जैन और श्रीशचंद भट्ट के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । इन दोनों ने उमरिया नगर के बौद्धिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक मानस निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
श्रीशचंद भट्ट के पास चीजों को देखने की अपनी नजर थी और विश्लेषण का अपना तरीका । वह गहरे अध्येता थे और ऐतिहासिक, भौगोलिक तथ्यों और रहस्यों के अन्वेषक भी । उनके पास जानकारियों का खजाना था । उनकी इसी विशेषता के कारण पूर्व आईएएस राजीव शर्मा उन्हें एनसाइक्लोपीडिया कहते थे । उमरिया के ऐतिहासिक सांस्कृतिक और भौगोलिक विषयों पर जानने के इच्छुक पत्रकार हों अथवा शोधार्थी भट्ट जी उनकी अंतिम शरण स्थली होते थे । भट्ट जी के जीवन से जुड़ा मजेदार पहलू यह है कि उनके बौद्धिक, सांस्कृतिक और आधुनिक एलीट से उमरिया के तत्कालीन समृद्ध परिवारों के साथ साथ यहां के इलाकेदारों और पवाईदारों के परिवार भी जुड़ाव रखने में अपना बड़प्पन समझते थे । बावजूद इसके भट्ट जी यहां के जातीय जीवन और उनकी बोली-बानी से गहरे जुड़े थे । क्लास में वे भले ही अंग्रेजी पढ़ाते थे लेकिन गांव-गंवई से आए आदिवासी बच्चों से उनकी बघेली में खूब घुल-मिल कर बतियाते थे । घर-परिवार, खेती-किसानी, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह से लेकर स्थानीय इतिहास और भूगोल आदि के विषय में खोद-खोद कर पूछते और उसे आत्मसात कर लेते । लोकजीवन के बारे में उनके ज्ञान और जानकारियों का श्रोत किताबों से ज्यादा लोक से उनका जीवंत संवाद था ।
उनके प्रिय शिष्यों में से एक रामनिहोर तिवारी जो स्वयं एक शिक्षाविद और साहित्यकार हैं बताते हैं कि उमरिया के सज्जन हायर सेकेंडरी स्कूल का वातावरण उन दिनों बहुत ही उद्दंड था, लेकिन भट्ट जी के क्लास में आते ही पिन ड्रॉप साइलेंस हो जाता था, जबकि वे बच्चों को कभी डांटते भी नहीं थे मारने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था । वे बेहद कर्मठ और अनुशासन प्रिय शिक्षक थे । कुर्ता-पायजामा में लिपटी उनकी दुबली पतली काया में अंतर्निहित विद्वता का आभामंडल ही बच्चों को संयत कर देता था । वे क्लास में आते तो ज्ञान और सूचनाओं की नई खिड़की खुल जाती । वे रोज नई-नई और ऐसी-ऐसी बातें बताते कि सुनकर छात्र विस्मय से भर जाते । सुनने, जानने की उनकी उत्सुकता कई गुने बढ़ जाती ।
रामनिहोर तिवारी जी बताते हैं कि नवीं कक्षा में हिंदी की किताब में सूर्य पर एक पाठ था । भट्ट जी ने इस पाठ को बड़े ही रोचक ढंग से पढ़ाया और बाद में बच्चों को सबक दिया कि "तुमलोग कल इसी तरह का एक लेख चंद्रमा पर लिखकर लाना ।" रामनिहोर तिवारी जी ने कहा कि मेरे अंदर लिखने की कुलबुलाहट बचपन से ही थी । मैं गद्य में भी और पद्य में भी कुछ ना कुछ लिखता रहता था । लेकिन उसे परवान चढ़ाया भट्ट जी ने । चंद्रमा पर लिखे मेरे लेख की उन्होंने न सिर्फ भूरि-भूरि प्रशंसा की बल्कि उसे विद्यालय के अन्य शिक्षकों को भी पढ़वाया । जिससे लेखन के प्रति मेरे आत्मविश्वास में असाधारण वृद्धि हुई । 1983 में जब पहली बार मेरे गीतों का प्रसारण आकाशवाणी रीवा से हुआ तो वे इतने खुश हुए कि अपनी ओर से स्टाफ के बीच मिठाई बांटी ।
वरिष्ठ कवि शंभू सोनी 'पागल' ने एक बड़ी रोचक घटना बताई । वक्त 1960 के आस पास का था । सज्जन हायर सेकेंडरी स्कूल में छात्रों के दो गुट बन गए थे । जिनके बीच वर्चस्व की लड़ाई आम बात थी । छात्रों का एक गुट कैंप उमरिया का था तो दूसरा चंदवार गांव का । एक बार किसी बात पर दोनों गुटों में झगड़ा इतना बढ़ा कि लाठी, डंडे के साथ तलवारें भी निकल आईं । बिगड़ा हुआ माहौल देखकर सारे शिक्षक ऑफिस में छिप गए । भट्ट जी को पता चला तो वे छात्रों की तरफ लपके और जोर से बोले... "रुको ।" उधर भट्ट जी को अचानक बीच में आया देख कर बच्चे अचकचा गए । भट्ट जी ने फनी अंदाज में कहा कि तुम लोगों से फाइटिंग-वाइटिंग नहीं आती क्या ? फिल्म-विल्म नहीं देखते ? लड़ने की बहुत ही चुलुक लगी हो तो ये लाठी-डंडा और हथियार-वथियार फेंककर थोड़ा ढिसुम-ढिसुम कर लो और शौक पूरा हो जाए तो अपने अपने घर जाओ । भट्ट जी के इस मजाकिया अंदाज से सारी तना-तनी काफूर हो गई । बच्चे ठठाकर हंसने लगे । तब भट्ट जी ने लडाई-झगड़े और हथियारों के दुष्परिणामों के बारे में छात्रों को समझाया । बताते हैं कि इसके बाद विद्यालय में वैसी नौबत फिर कभी नहीं आई ।
इसीतरह का एक रोचक प्रसंग तब का है जब भट्ट जी हायर सेकेंडरी स्कूल चंदिया में प्रिंसिपल थे और कम्बाइंड बस से रोज अप-डाउन करते थे । इसी बस में डिडौरी गांव के 5 छात्र भी रोज बिना पैसे दिए आते-जाते थे । इस बात पर कंडक्टर से रोज कहा सुनी होती । कंडक्टर कहना कम से कम आधा किराया तो दो, लेकिन छात्रों पर गुंडागर्दी का भूत सवार था । वे कंडक्टर की एक न सुनते । कुछ भी बोलता तो उससे गाली गलौज करते और मारपीट की धमकी देते । मानपुर का लल्लू गुप्ता इस बस का कंडक्टर था । उसे किसी से पता चला कि इसी बस में स्कूल के प्रिंसिपल भी आते जाते हैं तो उसने भट्ट जी से शिकायत की । भट्ट जी ने कहा कि जब बच्चे बस में चढ़ें और किराया न दें तब मुझे बस में ही बताना । अगले दिन से एक मजेदार सिलसिला शुरू हुआ । छात्र किराया नहीं देते तो कंडक्टर जोर से चिल्लाता देखिए गुरु जी आपके बच्चे किराया नहीं दे रहे हैं । कंडक्टर चिल्लाता तब छात्र मन मसोस कर कभी एक रुपए तो कभी दो रुपए देते । कंडक्टर फिर चिल्लाकर बताता कि अब देखिए 5 लोगों के बीच में कुल एक रुपए दे रहे हैं । तब भट्ट जी भी वहीं से चिल्लाकर कहते कोई बात नहीं बच्चे हैं उनके पास पैसे नहीं होंगे बाकी पैसे मुझसे ले लो । यह क्रम बमुश्किल चार - पांच दिन चला होगा, इसके बाद छात्रों के सिर से गुंडागर्दी का भूत उतर गया और वे बस से आना जाना ही बंद कर दिए । सायकल से स्कूल आने - जाने लगे । इस घटना का दुर्लभ पहलू यह है कि समस्या के संदर्भें भट्ट जी ने छात्रों से सीधे तौर पर कुछ भी नही कहा । एक सामान्य सा मनोवैज्ञानिक उपचार किया और समस्या का स्थाई समाधान हो गया ।
भट्ट जी से मेरा साबका तब हुआ जब मैंने 1997 में भोपाल से लौटकर उमरिया को अपनी कर्मभूमि बनाया । ये मेरी खुशनशीबी है कि मुझे भट्ट जी का भरपूर स्नेह और सान्निध्य मिला । मैं उमरिया में पत्रकारिता के साथ-साथ युवतर बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना और एक्टिविजम लेकर आया था । जिसने हर तरह की जड़ता और सामंतवाद को झकझोरा-ललकारा और उसके सामने एक नई चुनौती खड़ी की । मेरे इन प्रयासों को जिन्होंने दिल से भी और विचार से भी समझा, सराहा और प्रोत्साहन दिया उसमें भट्ट जी का स्थान बहुत बड़ा है । मेरे बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनके ही स्कूल में हुई । मेरा घर जब उमरिया में नहीं था और मैं अपने गांव जो उमरिया से लगभग 25 किलोमीटर दूर था से अप-डाउन करता था, तब कई बार वे हाथ पकड़ कर ये कहते हुए अपने घर ले गए कि बहुत विलंब हो गया है । कब साधन मिलेगा, कब घर पहुंचोगे ? छोड़ो आज यहीं रुक जाओ । उनकी वह आत्मीयता कितना संबल देती थी, मैं बता नहीं सकता । यह बात इसलिए भी ज्यादा उल्लेखनीय है क्योंकि उन दिनों हम हर तरह की यथास्थितिवादी शक्तियों से मुठभेड़ कर रहे थे और सत्ता प्रतिष्ठान हमको फूटी आंखों नहीं देखना चाहता था, तब उमरिया के नागरिक समाज के प्रतिष्ठित जनों का समर्थन बहुत बड़ी बात थी ।
बाद में जब मैं उमरिया में रहने लगा तब उनका मेरे यहां आना-जाना ज्यादा होने लगा । वे बिल्कुल अनौपचारिक थे । आते हाल-चाल पूछते गप-शप करते और चले जाते । एक बार आए तो पोई भाजी का पौधा लेकर आए और खुद ही क्यारी में लगा गए । बाद में मैंने देखा कि यह तो बारहमासी बेल है, तो उसे सामने वाली ग्रिल में झौंडा दिया । देखते ही देखते उसने पूरा स्पेस कवर कर लिया । फिर तो वह हर देखने वाले की जुगुप्सा और आकर्षण का केंद्र बन गई । पूछने पर जब मैं बताता कि पोई भाजी है, भट्ट जी लगा गए थे तो लोगों को सुखद आश्चर्य होता ।
उनके भीतर सहज विवेक और सहज व्यंग्य का जबर्दस्त संतुलन था । इसीलिए जटिल बौद्धिक विषयों पर भी उनके साथ बातचीत करने में मजा आता था । उनके साथ किसी भी विषय में बातचीत की जा सकती थी । विमर्श में वे कभी भी बोझिल और उबाऊ नहीं लगते थे । पहाड़ी झरने की तरह निर्मल और पारदर्शी, दूब की तरह विनम्र बच्चों की तरह सरल था उनका व्यक्तित्व । वे असहमति का आदर करते थे । उनके साथ मेरी खूब वैचारिक भिडंतें हुईं हैं, लेकिन मन में कभी खटास पैदा नहीं हुई । अंतिम के कुछ वर्षों में वे आत्मकेंद्रित हुए जिसके कारण उनके विचार और चिंतन में एकांगीपन आ गया था, लेकिन इसके पहले तक वे समाज को अपना सर्वोत्कृष्ट दे चुके थे ।
उन्होंने सामाजिक और ऐतिहासिक विषयों पर कुछ लेख और बहुत थोड़ी सी लेकिन असाधारण कविताएं लिखी हैं । कहना न होगा कि उन्होंने लिखा भले कम लेकिन जिया और दिया ज्यादा । उनका जाना उमरिया के नागरिक समाज की अपूरणीय क्षति है । उन्हें कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा ।