शरद जोशी जी जीवित होते तो उन्हें दिल्ली में किसानों की रैली वाली अपनी व्यंग्य रचना का अगला भाग लिखने की इच्छा होने लगती। क्योंकि जिस तरह उस रैली का किसानों से कोई लेना-देना नहीं था, उसी तरह राज्य में कांग्रेस की आज से शुरू हुई जन आक्रोश रैली का भी जनता सहित उसके आक्रोश से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं दिखा। रैली भले ही सात जगह से निकाली गई, लेकिन उसमें कांग्रेस के नेताओं के 'साथ-साथ' होने का कोई लक्षण भी नजर नहीं आया। कम से कम वह नेता इस आयोजन से दूर रहे, जिनके लिए आज भी कुछ उम्मीद के साथ कहा जाता है कि उनके भीतर कुछ दम बचा है। जो कमलनाथ राज्य के भावी मुख्यमंत्री होने के लिए सियासी अखाड़े में लगातार दंड पेल रहे हैं, वह तक इस आयोजन से दूर रहे। दिग्विजय सिंह की भी यही स्थिति रही। खैर, रैली तो दूर, दिग्विजय तो कांग्रेस के रैले से भी परे धकेले जा चुके हैं। पार्टी के इस आंदोलन के लिए तैयार बैनर-पोस्टर तक में सिंह को जगह नहीं दी गयी। जाहिर बात है कि दिग्विजय के दस साल के शासन को लेकर जनता के बीच आज भी गुस्सा कायम है और कांग्रेस यही सोचकर डर रही होगी कि यदि उन्हें तवज्जो दी तो जनाक्रोश उलटा पार्टी के ऊपर ही न फूट पड़े। 
दरअसल कांग्रेस पूरी तरह कॉर्पोरेट कल्चर में रंग चुकी है। उसमें समर्पित नेताओं की जगह मैनेजर्स ने ले ली है। उन्हें लुभावने कार्यक्रम बनाने और नारे देने में महारत हासिल है। बाकी जमीनी स्तर पर काम करने का तो इस दल से चलन ही ख़त्म हो गया है। वरना तो यह भाजपा थी, जिसने वर्ष 2003 में उमा भारती की जन आक्रोश यात्रा को ठोस तरीके से ऐसा आक्रामक स्वरूप प्रदान किया था कि दिग्विजय सिंह की सरकार का शर्मनाक पतन हो गया था। बेशक भाजपा आज अभिजात्य वर्ग की पार्टी वाले रूप में भी दिखने लगी है, लेकिन उसने संगठन की शक्ति वाले क्षेत्र में अपनी परंपराओं से कोई समझौता नहीं किया है और उसका असर सामने है। 
कांग्रेस की जन आक्रोश रैली को लेकर एक सवाल सहज रूप से उठता है। इसकी अगुवाई करने वाले चेहरों में से कौन ऐसा था, जो जनता के आक्रोश को पार्टी के पक्ष में  लाने की क्षमता रखता हो? अजय सिंह 'राहुल' से लेकर कांतिलाल भूरिया या अरुण यादव आदि भले ही कांग्रेस के भीतर 'वरिष्ठ' वाली श्रेणी में गिने जाते हों, लेकिन आम जनता के बीच ये अब इतने 'गरिष्ठ' हो चुके हैं कि इनकी बातों को पचा पाना लोगों के लिए नामुमकिन हो गया है। इनके अलावा भी कांग्रेस ने आज रैली की कमान जिन-जिन बड़े नेताओं को सौंपी, उन्होंने तत्काल प्रभाव से 'वोकल फॉर लोकल' की तरह काम कर दिखाया। उन्होंने स्थानीय नेताओं को इसकी जिम्मेदारी सौंपी और खुद फोटो खिंचवाकर धीरे से खिसक लिए। तो ऐसी और इस तरह की फितरत के बीच क्या यह संभव दिखता है कि कांग्रेस प्रदेश में अपने तेजी से खिसके जनाधार को फिर से हासिल कर सकेगी? नामकरण कर लेने भर से कुछ नहीं हो जाता। वर्ष 2003 की नकल करने का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तब कि उस दिशा में भाजपा जैसे समर्पण और उमा भारती जैसे तेवर वाले के साथ आगे न बढ़ा जाए। लेकिन कांग्रेस ने तो आगे बढ़ने के सारे स्कोप ही ख़त्म कर दिए गए हैं। दिल्ली से लेकर भोपाल तक इस दल की कार्यशैली आकाओं के चक्कर काटने तक ही सीमित हो गयी है और याद रखिए कि परिक्रमा खड़े-खड़े ही की जाती है, उसमें आगे की तरफ जाने का कोई प्रावधान नहीं होता है।