लंदन । आज हम आपको इलाज के ऐसे पारंपरिक तरीके बताने जा रहे हैं, जिनमें इंसानी लाशों से गंभीर बीमारियां ठीक कर दी जाती थीं। इतना ही नहीं, मनुष्‍य की खोपड़ी से मिर्गी की दवा बनाई जाती थी। आप जानकर हैरान होंगे कि ब्रिटेन के राजा का भी इन्‍हीं तरीकों से इलाज किया गया था। एक रिपोर्ट के मुताबिक, फ्रांसिस बेकन, जॉन डन, महारानी एलिज़ाबेथ के सर्जन जॉन बेनिस्टर समेत कई दर्शनिकों और वैज्ञानिकों ने इनका जिक्र किया है। वे न केवल इन तरीकों को स्‍वीकार करते हैं बल्‍क‍ि ऐसा करने का सुझाव भी देते हैं। आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसा होता कब था? तो बता दें कि साल 1685 में इंसानी खोपड़ी से बनाई गई बूंदों का उपयोग ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय के इलाज के लिए भी किया गया था। इसका कई जगह जिक्र मिलता है।मिस्र में इंसानों लाशों से पारंपरिक चिकित्‍सा सबसे ज्‍यादा लोकप्र‍िय थी। 
लाशों से सूखे मांस को निकाल उसका पाउडर बनाया जाता था और फिर इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता था। कुछ डॉक्‍टरों ने इस बात का भी जिक्र किया है कि ताजा चर्बी, खून और यहां तक कि पुट्ठों का मांस भी इलाज में प्रयोग में लाया जाता था। सबसे दिलचस्‍प बात, सबसे अच्‍छा इलाज उस लाश से होता था, जिसकी उम्र 25 साल से कम हो और उसकी मौत दर्दनाक तरीके से हुई हो। यूरोप में 15वीं सदी के अंत तक इंसानी शवों का उपयोग ब्रेन हेमरेज के इलाज के लिए किया जाता था। मनुष्‍य के खून और खोपड़ी से मिर्गी का इलाज होता था। कुछ विशेषज्ञ तो खोपड़ी में लगी फफूंद से दवा बना लेते थे। इसे पाउडर के रूप में प्रयोग करते थे। 
जब डिमांड इतनी ज्‍यादा हो तो लूटमार मचेगी ही। बकायदा व्‍यापार होने लगा। व्यापारी न केवल मिस्र की क़ब्रों को लूटते थे, बल्कि अक्सर धोखे से लोगों को गरीबों या कोढ़ी, या ऊंट का मांस तक भी बेच दिया करते थे। मिस्र के क़ाहिरा के एक पिरामिड के बारे में कहा जाता है कि वहां से लोगों की लाशें रोजाना निकाली जाती थीं। वे सड़ी हुई नहीं, बल्कि सही स्थिति में होती थीं। जर्मनी में तो इस तरह का इलाज अब से 100 साल पहले तक होता था।