परमात्मा या भगवान ही सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्रों जैसी प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्रोत हैं। वैदिक साहित्य बताता है कि वैकुंठ राज्य में सूर्य या चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि वहां परमेश्वर का तेज विद्यमान है।भौतिक जगत में ब्रम्हज्योति या भगवान का आध्यात्मिक तेज भौतिक तत्वों से ढका रहता है। अत: हमें सूर्य, चन्द्र, बिजली आदि के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है। वैदिक साहित्य में स्पष्ट है कि भगवान आध्यात्मिक जगत (वैकुंठ लोक) में स्थित हैं।श्वेतातर उपनिषद में कहा गया है- आदित्यवर्ण तमस: परस्तात अर्थात वे सूर्य की भांति अत्यन्त तेजोमय हैं, लेकिन भौतिक जगत के अन्धकार से बहुत दूर हैं। उनका ज्ञान दिव्य है। 
वैदिक साहित्य पुष्टि करता है कि ब्रम्ह घनीभूत दिव्य ज्ञान है। जो वैकुंठ जाने का इच्छुक है, उसे परमेश्वर द्वारा ज्ञान प्रदान किया जाता है। एक वैदिक मंत्र है तं ह देवम आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुवै शरणामहं प्रपद्ये। अर्थात मुक्ति के इच्छुक मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान की शरण में जाए। जहां तक चरम ज्ञान के लक्ष्य का सम्बन्ध है, वैदिक साहित्य से भी पुष्टि होती है-तमेव विदित्वाति मृत्युमेति यानी उन्हें जान लेने के बाद ही जन्म तथा मृत्यु की परिधि को लांघा जा सकता है।  
वे प्रत्येक हृदय में परम नियन्ता के रूप में स्थित हैं। परमेश्वर के हाथ-पैर सर्वत्र फैले हैं लेकिन जीवात्मा के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अत: मानना ही पड़ेगा कि कार्यक्षेत्र जानने वाले दो ज्ञाता हैं- एक जीवात्मा तथा दूसरा परमात्मा। पहले के हाथ-पैर किसी एक स्थान तक सीमित हैं जबकि कृष्ण के हाथ-पैर सर्वत्र फैले हैं। इसकी पुष्टि श्वेतातर उपनिषद में इस प्रकार हुई है। सर्वस्थ प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत यानी वह परमेश्वर या परमात्मा समस्त जीवों का स्वामी या प्रभु है। वह उन सबका चरम आश्रय है। अत: इस बात से मना नहीं किया जा सकता कि परमात्मा तथा जीवात्मा भिन्न हैं।