नई दिल्ली। दिल्ली में इन दिनों जिस तरह सत्ता दल आम आदमी पार्टी और केंद्र सरकार के बीच में अधिकारों की जंग चल रही है, उससे एक बार फिर यह बहस छिड़ गई है कि क्या दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए।

दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग भले ही सात दशक पुरानी और हर पार्टी की ओर से की गई है लेकिन आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के बाद से यह मांग लगातार उठती रही है। दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग की पूरी यात्रा सबसे बड़ा दिन तब था जब 29 जून 1998 को तत्कालीन दिल्ली सरकार ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मसौदा तैयार कर लिया था और केंद्र सरकार से इसे पास कराना था।

हालांकि यह हो नहीं सका, उसके बाद की सरकारों ने इस मुद्दे पर ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। फिर आम आदमी पार्टी सत्ता में आई और तब से यह मुद्दा लगातार सुर्खियों में बना हुआ है। तो आइए हम आपको दिल्ली के पूर्ण राज्य का दर्जा बनाने की मांग की यात्रा पर ले चलते हैं जो शुरू होती है 1911 से....

पूर्ण राज्य के लिए दिल्ली का संघर्ष

1911 में अंग्रेजों ने क्या किया

साल 1911 में अंग्रेजों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाई, तब इसमें शामिल पंजाब प्रोविंस के पांच जिलों करनाल, रोहतक, अंबाला, हिसार और गुड़गांव को इससे अलग कर दिया। बाद में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 और 1935 के तहत दिल्ली को चीफ कमिश्नर का प्रोविंस बना दिया जिसकी मान्यता आज के यूनियन टेरिटरी के बराबर ही है। इस तरह दिल्ली पर गवर्नर जनरल चीफ कमिश्नर के जरिए राज्य करने लगे।

आजादी से एक माह पहले हुआ महत्वपूर्ण कार्य

आजादी से एक माह पहले जुलाई 1947 में दिल्ली की स्वायत्ता को लेकर एक बड़ा काम हुआ था जब पट्टाभि सीतारमैया कमेटी स्थापित की गई जो देश की राजधानी के तौर पर दिल्ली की स्वायत्तता और गवर्नेंस मॉडल पर अध्ययन करने वाली थी। इस कमेटी ने विश्व की अन्य राजधानियों में किस तरह का प्रशासन है उनका भी अध्ययन किया; जैसे- ऑस्ट्रेलिया के कैनबरा, अमेरिका के वाशिंगटन डीसी और यूनाइटेड किंगडम के लंदन।

इसके साथ ही इस कमेटी ने 1912 के उन हालात का भी ध्यान रखा कि दिल्ली के लोगों के अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। उन्हें भी अपनी सरकार होने का हक है जैसे देश के छोटे से छोटे गांव में भी है।

क्या थीं कमेटी की सिफारिशें

सीतारमैया कमेटी ने जो सिफारिशें रखीं वह काफी कुछ वर्तमान दिल्ली में प्रशासन का जैसा मॉडल है उससे मिलता-जुलता है। उदाहरण के लिए कमेटी ने अपनी सिफारिश में कहा था कि दिल्ली का प्रशासन एलजी संभालेंगे जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होगी। इसके साथ ही मंत्रियों का एक समूह उनकी सहायता और सलाह के लिए होगा। अगर एलजी और मंत्री समूह में कोई मतभेद होने पर राष्ट्रपति उसका निपटारा करेंगे। केंद्र सरकार की जिम्मेदारी होगी कि दिल्ली में सुशासन हो और वित्तीय समस्या न हो। संक्षिप्त रूप से कहें तो इस कमेटी ने दिल्ली के एलजी का शासन और चुनी हुई सरकार दोनों का शासन की बात कही थी।

बीआर अंबेडकर थे कमेटी की सिफारिशों के खिलाफ

देश के संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू भी इस कमेटी की सिफारिशों के खिलाफ थे। उनका मानना था कि देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में स्थानीय सरकार नहीं हो सकती।

किसने किया बाबा साहेब का विरोध

हालांकि, संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों का सबसे मुखर विरोध दिल्ली के एकमात्र प्रतिनिधि रहे देशबंधु गुप्ता ने किया और मांग की कि दिल्ली को स्थानीय सरकार मिलनी ही चाहिए। उन्होंने डॉ. अंबेडकर से कहा कि वो बाबा साहेब जिन्हें अल्पसंख्यकों की छोटी से छोटी परेशानी भी दिख जाती है वह दिल्ली जैसे छोटे जगह की परेशानी क्यों नहीं देख पा रहे हैं। उन्हें इस बारे में सोचना चाहिए।

आगे चलकर संविधान में आर्टिकल 239 और 240 जोड़े गए जो दिल्ली में गवर्नेंस की कई परतें जोड़ने वाली थी। बाद में सरकार ने पार्ट सी स्टेट्स एक्ट (1951) पास किया जिसके तहत दिल्ली में चुनी हुई सरकार राज करेगी लेकिन कानून व्यवस्था, पुलिस, नगर निगम और भूमि केंद्र के अधीन होंगे।

1952 में पहली बार दिल्ली में हुआ चुनाव

कानून पास होने के परिणामस्वरूप 1952 में दिल्ली में पहली बार चुनाव हुए और कांग्रेस पार्टी के चौधरी ब्रह्म परकाश मुख्यमंत्री चुने गए। हालांकि अधिकार क्षेत्र को लेकर सीएम और चीफ कमिश्नर आनंदर दत्ताया पंडित अक्सर आमने-सामने आते रहते थे। ऐसे में आगे चलकर सीएम ब्रह्म परकाश ने 1955 में इस्तीफा दे दिया।

1956 में छिना दिल्ली से राज्य का दर्जा

यह देखते हुए राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) ने दिल्ली विधानसभा को 1956 में भंग कर दिया। इस आयोग ने पाया कि राजधानी में दोहरे शासन से पूरी व्यवस्था चरमरा गई है। ऐसे में यहां एक ही शासन हो सकता है। हालांकि उन्होंने ये जरूर कहा कि स्थानीय लोगों की महत्वकांक्षा के लिए यहां नगर निगम के शासन की जरूरत है जो स्थानीय तौर पर लोगों की समस्याओं का समाधान कर सके। इस तरह दिल्ली केंद्र शासित राज्य बन गई और उसकी विधानसभा और चुनी सरकार होने का हक छीन लिया गया।

जोर-शोर से हुआ कमेटी का विरोध

कमेटी के इस फैसले का विरोध जोर-शोर से हुआ। इसे सांसद सुचेता कृपलानी ने दिल्ली के लोकतंत्र पर आघात बताया था। आयोग की इस सिफारिश का सभी प्रमुख पार्टियों ने कड़े स्वर में विरोध किया था। हालांकि जन संघ जो बाद में दिल्ली के पूर्ण राज्य के दर्जे के लिए लड़ी वह आयोग की सिफारिशों से सहमत थी।

तत्कालीन सरकार ने विरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया। 1957 में दिल्ली नगर निगम एक्ट पास किया गया जिससे दिल्ली को निगम मिल गया। हालांकि स्थानीय लोगों की आकांक्षाओं पर निगम पूरी तरह खरा नहीं उतर पा रहा था। लोग अपनी सरकार चाहते थे जो उनके प्रति जवाबदेह हो।

1966 में पास हुआ दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट

लोगों की आशाओं को ध्यान में रखते हुए 1966 में केंद्र सरकार ने दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1966 पास किया। इससे मेट्रोपोलिटन काउंसिल का निर्माण हुआ जिसमें 56 चुने हुए, पांच मनोनीत सदस्य हों। इसके साथ ही एक एक्जीक्यूटिव काउंसिल होगी जिसमें चार काउंसिलर राष्ट्रपति द्वारा चुने जाएंगे। मेट्रोपोलिटन काउंसिल बन तो गया लेकिन इसके पास कोई शक्ति नहीं थी, यह सिर्फ सिफारिशे कर सकता था और बजट प्रस्ताव रख सकता था।

70 का दशक आते-आते नाकाफी साबित हुई मेट्रोपॉलिटन काउंसिल

70 का दशक आते-आते मेट्रोपॉलिटन काउंसिल दिल्ली की जरूरतों के हिसाब से नाकाफी सिद्ध हो चुकी थी। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आई तो पहला मौका आया जब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल सकता था। उस दौरान जन संघ और जनता पार्टी ने मेट्रोपॉलिटन काउंसिल में कई प्रस्ताव पेश किए और कहा यह समय की मांग है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले। जन संघ लगातार दिल्ली के पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए काम करते देख कांग्रेस पार्टी ने भी पांचवीं मेट्रोपॉलिटन काउंसिल की अध्यक्षता करते हुए दिल्ली के राज्य का दर्जा का प्रस्ताव पेश कर दिया।

80 के दशक में जन संघ ने तेज किया पूर्ण राज्य की मांग का आंदोलन

जन संघ जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी 80 के दशक में पूरे जोर-शोर से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की राजनीति पर कार्य करने लगी। 1987 में तो जनसंघ हर दिन सदन में इस मुद्दे को उठाती थी। भाजपा की इस लड़ाई के हीरो थे मदन लाल खुराना। भाजपा के अन्य नेता जैसे वीके मल्होत्रा और साहिब सिंह वर्मा भी इस लड़ाई में साथ थे लेकिन मदन लाल खुराना सबसे आगे रहे। यही वजह थी कि उन्हें दिल्ली का शेर कहा जाता था।

दो दशक के अव्यवस्थित शासन के बाद केंद्र ने 1987 में आरएस सरकारिया कमेटी (जो बाद में बालाकृष्णन कमेटी के नाम से जानी गई) का गठन किया। इस कमेटी ने मुखर होकर सिफारिश की थी कि दिल्ली को अपनी सरकार मिलनी ही चाहिए, भले ही कुछ क्षेत्र पर केंद्र का नियंत्रण हो।

69वें संविधान संशोधन के साथ दिल्ली को 1991 में मिली विधानसभा

इस कमेटी सिफारिशों और विपक्षी पार्टियों की दलीलों को ध्यान में रखते हुए 1990 में सदन में मई 1990 में संविधान में संशोधन प्रस्ताव लाया गया, जिससे दिल्ली के स्टेटस में बदलाव हुआ। 1991 में संविधान का 69वां संशोधन पार्लियामेंट में पास हुआ और दिल्ली को विधानसभा मिल गई। इसी समय जीएनसीटीडी एक्ट 1991 भी पास हुआ जिसमें चुनी हुई सरकार के अधिकारों की चर्चा थी। इस तरह 1952 के बाद दिल्ली को अपनी चुनी हुई सरकार मिलने का हक मिल गया।

1993 में बनी भाजपा की सरकार

भाजपा जिस तरह से दिल्ली को राज्य का दर्जा दिलाने की लिए लड़ी उसके परिणामस्वरूप 1993 में हुए चुनाव में वह विजयी रही। तब मदन लाल खुराना सीएम बने। पार्टी ने कोई मौका नहीं गवाया और दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग रखी। आज जैसे आम आदमी पार्टी और केंद्र की भाजपा सरकार में तकरार होती है उस वक्त भी केंद्र की कांग्रेस और दिल्ली की भाजपा सरकार में तकरार होती थी।

1998 में तैयार हो चुका था पूर्ण राज्य का पूरा ड्राफ्ट

28 जून 1998 में भाजपा सरकार ने तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए पूरे बिल का ड्राफ्ट तक तैयार कर लिया था और इसे पेश भी किया था। इनमें उन्होंने नई दिल्ली नगर निगम को बाहर कर दिया था। इस बिल में था कि केंद्र के पास पब्लिक ऑर्डर, पुलिस रहेगी और दिल्ली सरकार के पास भूमि और अन्य अधिकार रहेंगे।

यह बिल अपने सबसे उच्च स्तर पर तब पहुंचा जब साल 2003 में डिप्टी पीएम लाल कृष्ण आडवाणी ने दिल्ली बिल 2003 पेश किया और दिल्ली को पूर्ण राज्य देने की बात कही। संवैधानिक संशोधन (102) विधेयक का उद्देश्य दो बाधाकारी अनुच्छेदों को निरस्त करना था: 239AA और 239AB। यह विधेयक बाद में स्थायी समिति को भेजा गया। हालांकि भाजपा के 2003 में दिल्ली और बाद में आम चुनाव हारने के बाद यह बिल कभी वापस नहीं आ सका।

केंद्र में आने के बाद भाजपा ने इस मुद्दे से किया किनारा

अगले 10 साल यानी 2004 से 2014 तक जब तक कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का राज रहा भाजपा इस मुद्दे को उठाती रही। लेकिन 2014 में सत्ता में आने के बाद जब दिल्ली का 2015 में चुनाव हुआ तो भाजपा ने इस मांग को अपने विजन डॉक्यूमेंट से ही हटा दिया। हालांकि तब से ही आम आदमी पार्टी यह मांग करती आ रही है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज मिले और उसे अधिक अधिकार ताकि वह आसानी से दिल्ली का प्रशासन चला सके।