आंध्र प्रदेश के बासर गांव में गोदावरी नदी के तट पर स्थित सरस्वती माता का एक मंदिर है। इस मंदिर के बारे में तरह-तरह की किवदंतियां प्रचलित है। इस मंदिर में केंद्रीय रूप से सरस्वती माता की भव्य प्रतिमा स्थापित है, उनके साथ लक्ष्मी माता भी यहां विराजमान हैं। सरस्वती देवी की मूर्ति लगभग 4 फुट की ऊंची है। यहां वह पद्मासन मुद्रा में है। इस मंदिर की सबसे खास बात है कि मंदिर के एक स्तंभ से संगीत के सातों स्वर सुनाई देते हैं, इसी विशेषता के चलते भक्त यहां खींचे चले आते हैं। कोई भी ध्यानपूर्वक कान लगाकर इस ध्वनि को सुन सकता है।
प्राचीन कथाओं की माने तो मां सरस्वती के मंदिर से थोड़ी दूर दत्त मंदिर स्थित है, जहां से होते हुए गोदावरी नदी तक एक सुरंग जाया करती थी। कहा जाता है कि इसी सुरंग के द्वारा ही राजा महाराजा पूजा के लिए आते थे। कहा जाता है कि बाल्मीकि ऋषि को भी यहीं पर सरस्वती माता से आर्शीवाद मिला था। जिसके बाद उन्होंने रामायण लिखना शुरू किया।
अक्षाराभिषेक की रीति का है रिवाज
यहां एक धार्मिक रीति भी विख्यात है, जिसे अक्षर आराधना कहते हैं। अक्षर आराधना में बच्चों को शिक्षा प्रारंभ करने से पहले अक्षराभिषेक के लिए यहां पर लाया जाता है। मान्यता है कि बच्चे के जीवन के पहले अक्षर यहां लिखवाने से बच्चे का शैक्षिक जीवन सदैव सफल रहता है। इस रीति के बाद हल्दी का लेप प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। सरस्वती माता ब्रह्मदेव की मानस पुत्री भी हैं, साथ ही विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी मानी जाती हैं।
वेदव्यास को हुई थी ज्ञान की प्राप्ति
यह मंदिर काफी प्राचीन माना जाता है, मान्यता है कि महाभारत के लेखक वेद व्यास जब मानसिक रूप से परेशान थे तब वह शांति के लिए तीर्थयात्रा पर गए थे। अपने मुनियों के साथ वह उत्तर भारत की तीर्थयात्रा करके बासर पहुंचे। वह गोदावरी नदी के तट को देखने के बाद प्राकृतिक सौंदर्यता से मंत्र-मुग्ध हो कर वहीं रुक गए, कहा जाता है कि उन्हें इसी जगह पर ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और वेदों के रचयिता बने। इस मंदिर के बारे कहा जाता है कि अज्ञान के अंधकार में डूबे कालिदास को भी यहीं ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। वरदराज को भी यहीं आकर ज्ञान मिला था। इसलिए कहते हैं कि यहां आकर अज्ञानी भी ज्ञानी हो जाते हैं।