अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ ने मनाया स्थापना दिवस

*फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष, भारतीय संविधान व अंबेडकर आदि विषयों पर हुई परिचर्चा*

 

अनूपपुर

प्रलेस अनूपपुर ने 14 अप्रैल को एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें प्रलेस के स्थापना दिवस के साथ ही फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष तथा भारतीय संविधान और अंबेडकर आदि विषयों पर परिचर्चा हुई । यद्यपि अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 9 अप्रैल 1936 को लखनऊ में हुई थी लेकिन 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती थी अतः यह कार्यक्रम 14 अप्रैल के लिए तय किया गया । प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना की योजना सन् 1935 में लंदन के एक रेस्टोरेंट में बनी जब वहाँ पर सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद, प्रमोद रंजन सेन गुप्ता, मुहम्मद दीन तासीर ज्योतिर्मय घोष, हाजरा बेगम तथा उनके कुछ अंग्रेज मित्रों ने गहन मंथन किया और प्रगतिशील लेखक संघ का एक प्राथमिक खाका तैयार किया । सज्जाद ज़हीर जब लंदन से भारत वापस लौटे तो उन्होंने कई प्रदेशों का दौरा कर वहाँ के लेखकों से संपर्क किया और प्रेमचंद से मंत्रणा कर के लखनऊ में 9 और 10 अप्रैल 1936 को एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की गई जिसमें प्रेमचंद ने अध्यक्षता की इसमें सज्जाद ज़हीर,मुल्कराज आनंद , कन्हैया लाल मुंशी सहित कई प्रसिद्ध लेखकों ने हिस्सा लिया पर कुछ बड़े लेखक इससे दूर रहे । निराला और रामविलास शर्मा लखनऊ में उपस्थित थे फिर भी इस कार्यक्रम में नहीं आए , जैनेंद्र कुमार को ज़रूर प्रेमचंद उस बैठक में ले गए पर इसके बाद जैनेन्द्र हमेशा ही इस संघ से दूर रहे । प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण से प्रभावित होकर तमाम लेखकों ने इसकी सदस्यता ली और इस तरह से इसका गठन हुआ। प्रलेस का यह कार्यक्रम मंदाकिनी होटल में सायं 4 बजे से प्रारंभ हुआ । इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि की आसंदी से बोलते हुए इप्टा के राष्ट्रीय सचिव शैलेंद्र ने कहा कि “आज हम काफ़ी विषम परिस्थितियों में जी रहे हैं , राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र भक्ति का पैमाना बदल दिया गया है और उस बदले हुए पैमाने की फ़्रेम पर कस कर हम राष्ट्र प्रेम को आंक रहे हैं । यदि हम राष्ट्र से प्रेम करते हैं तो राष्ट्र तो एक सौ चालिस करोड़ लोगों से मिलकर बना है इतना ही नहीं इस देश का सारा भू-भाग ,खेत-खलिहान , नदी-पर्वत, कल-कारख़ाने सब कुछ तो राष्ट्र में समाहित हैं तो हमें इन सब प्रेम होना चाहिए तभी तो हम सच्चे अर्थों में राष्ट्र से प्रेम कर सकेंगे । क्या ऐसा हो रहा है ? जाति , धर्म, संप्रदाय, रहन-सहन , भाषा- प्रांत आदि रूपों में विभाजित होकर यदि एक दूसरे से घृणा करेंगे तो प्रेम कहॉं रह जाएगा, फिर कैसा राष्ट्र प्रेम और कैसी राष्ट्र भक्ति । हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, गांधी , नेहरू, पटेल, बोस, भगत सिंह आदि को एक दूसरे का विरोधी बता कर हम दोनों तरह की विचारधाराओं को समाप्त करने पर नहीं तुले हुए हैं  ? सभी की विचारधाराओं में भले अंतर रहा हो पर सभी का उद्देश्य पवित्र और नेक था और एक था , तो इन सब को ख़ारिज करके हम कौन सी विचारधारा का प्रतिपादन कर रहे हैं और किस लोकतंत्र की चर्चा हो रही है जो संविधान सम्मत है भी या नहीं । जब हम व्यथित होते हैं, तनाव में होते हैं, चिड़चिड़ाहट हम पर हावी होती है और थकान महसूस होती है तब हम मॉं की गोद में सिर रख कर लेटते हैं और उसका वात्सल्य पूर्ण हाथ हमें सहला रहा होता है तो हम पुनः शांत ,ऊर्जान्वित ,तनाव मुक्त और प्रसन्न हो उठते हैं ठीक उसी तरह की मनोदशा में जब हम गांधी के पास जाते हैं तो हमें शुकून मिलता है तो फिर हम गांधी को ख़ारिज कैसे कर सकते हैं ।राष्ट्र को संविधान सम्मत होना होगा, तभी संविधान की इज़्ज़त और रक्षा होगी । फ़िलिस्तीन का संघर्ष बहुत पुराना है यह यकायक पैदा नहीं हुआ , उसकी जड़ों में जाकर समस्या का पता लगाकर मोहब्बत से उसका हल ढूँढना होगा तभी उसका समाधान हो सकेगा।  जब तक शैलेंद्र बोलते रहे , लोग मंत्रमुग्ध हो कर सुनते रहे । ऐसा लग रहा था कि काश समय ठहर जाए शैलेंद्र बोलते रहें और सब सुनते रहें और यह क्रम अनंत काल तक चलता रहे ।जब कक्ष में शैलेंद्र की आवाज़ गूंज रही थी फिर भी एक सन्नाटा पसरा था और कोई आवाज़ नहीं और कोई प्रतिक्रिया नहीं । शैलेंद्र की आवाज़ और श्रोताओं के कानों के बीच एक अजीब तादात्म्य स्थापित हो चुका था।.